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ग़ज़ल
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
अलीमुल्लाह
ग़ज़ल
मिटा दूँ अपनी हस्ती ख़ाक कर दूँ अपने-आपे को
मिरी बातों से गर दुश्मन के भी दिल में ग़ुबार आए
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
बारिश एक पड़े तो बाहर आपे से हो जाती है
जिस मख़्लूक़ ने आँखें खोलीं धरती के तह-ख़ाने में
साइमा इसमा
ग़ज़ल
न थे आपे में मूसी वर्ना उन का हौसला क्या था
जो बोल उठते कि आ पर्दा से बाहर देखता क्या है
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
अहल-ए-ज़र्फ़ आपे से बाहर नहीं होते 'आरिफ़'
हम समुंदर थे न बिफरे नदी नालों की तरह
इक़बाल अहमद ख़ाँआरिफ़
ग़ज़ल
समुंदर अपने आपे से कभी बाहर नहीं होता
मगर बारिश में नाले ख़ुद को ही बरतर समझते हैं