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ग़ज़ल
साग़र-ए-मय में नहीं परतव-ए-ख़ाल-ए-साक़ी
है कफ़-ए-दुख़्तर-ए-रज़ में सिपर-ए-जाम-ए-शराब
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
मिरा दिल भी शराब-ए-इश्क़ से लबरेज़ है साक़ी
ये बोतल भी उड़ा कर काग मयख़ाने में रख देना
क़ैसर हैदरी देहलवी
ग़ज़ल
उड़ा कर काग शीशे से मय-ए-गुल-गूँ निकलती है
शराबी जम्अ हैं मय-ख़ाना में टोपी उछलती है