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ग़ज़ल
ये फ़लक ये माह-ओ-अंजुम ये ज़मीन ये ज़माना
तिरे हुस्न की हिकायत मिरे इश्क़ का फ़साना
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते
तो अपनी बस्तियों को स्वर्ग से बढ़ कर बना लेते
नवीन सी. चतुर्वेदी
ग़ज़ल
जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा
सीधा मंतर पढ़ते पढ़ते उल्टा मंतर पढ़ बैठा
नवीन सी. चतुर्वेदी
ग़ज़ल
बोलने की भी यहाँ क़ीमत चुकाई जा रही है
दिन दहाड़े सच की अब गर्दन दबाई जा रही है