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ग़ज़ल
वही हुआ कि तकल्लुफ़ का हुस्न बीच में था
बदन थे क़ुर्ब-ए-तही-लम्स से बिखरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
लम्स की लौ में पिघलता हुज्रा-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात
तुम भी होते तो अंधेरा देखने की चीज़ थी
लियाक़त अली आसिम
ग़ज़ल
तू मिरे लम्स की तासीर से वाक़िफ़ ही नहीं
तुझ को छू लूँ तो तिरे जिस्म का हिस्सा हो जाऊँ
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
इक मुट्ठी तारीकी में था इक मुट्ठी से बढ़ कर प्यार
लम्स के जुगनू पल्लू बाँधे ज़ीना ज़ीना उतरी मैं