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ग़ज़ल
मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
तू क़रीब आ तुझे देख लूँ तू वही है या कोई और है
सलीम कौसर
ग़ज़ल
अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ
मिरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आइने में उतार लूँ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
'फ़ैज़' दिलों के भाग में है घर भरना भी लुट जाना भी
तुम इस हुस्न के लुत्फ़-ओ-करम पर कितने दिन इतराओगे