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ग़ज़ल
रच गया है मेरी नस नस में मिरी रातों का ज़हर
मेरे सूरज को बुला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
होंटों पर आहें क्यूँ होतीं आँखें निस-दिन क्यूँ रोतीं
कोई अगर अपना भी होता ऊँचे ओहदे-दारों में
हबीब जालिब
ग़ज़ल
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
दिन ढलने पर नस नस में जब गर्द सी जमने लगती है
कोई आ कर मेरे लहू में फिर मुझ को नहलाता है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
साँसों की तरह मैं तेरी नस नस में रहूँगा
खो कर तू मुझे ख़ुद भी अज़ाबों में रहेगा