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ग़ज़ल
इक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद
हुस्न-ए-इंसाँ से निमट लूँ तो वहाँ तक देखूँ
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
ख़ुद जो न होने का हो अदम क्या उसे होना कहते हैं
नीस्त न हो तो हस्त नहीं ये हस्ती क्या हस्ती है
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
देखते ही किसी काफ़िर को बिगड़ जाती है
मैं जो चाहूँ भी तो रहती नहीं निय्यत अच्छी
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
उस के कूचे में है नित सूरत-ए-बेदाद नई
क़त्ल हर ख़स्ता बा-अंदाज़-ए-दिगर होता है