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ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
तुम्हारा ग़म भी किसी तिफ़्ल-ए-शीर-ख़ार सा है
कि ऊँघ जाता हूँ मैं ख़ुद उसे सुलाते हुए
रहमान फ़ारिस
ग़ज़ल
अब कोई छू के क्यूँ नहीं आता उधर सिरे का जीवन-अंग
जानते हैं पर क्या बतलाएँ लग गई क्यूँ पर्वाज़ में चुप
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
मिरे दिल के दीन को बेच कर कोई ले गया मुझे खींच कर
मिरे अंग अंग में अपना रंग जमाना हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
तलवे सहलाने में गो ऊँघ के झुक झुक तो पड़े
पर मज़ा भी वो उड़ाया है कि जी जाने है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
तिरे दीवाने हर रंग रहे तिरे ध्यान की जोत जगाए हुए
कभी निथरे सुथरे कपड़ों में कभी अंग भभूत रमाए हुए