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ग़ज़ल
इक मुट्ठी तारीकी में था इक मुट्ठी से बढ़ कर प्यार
लम्स के जुगनू पल्लू बाँधे ज़ीना ज़ीना उतरी मैं
किश्वर नाहीद
ग़ज़ल
कच्ची मुंडेरों वाले घर में शाम के ढलते ही हर रोज़
अपने दुपट्टे के पल्लू से कोई चराग़ जलाता है
साबिर वसीम
ग़ज़ल
धूप कड़ी है नंगा सर ही सहराओं से गुज़रूँगा
अपने दुपट्टे के पल्लू का मेरे सर पर साया कर
माजिद-अल-बाक़री
ग़ज़ल
शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ने महका दिया दिल का हर इक गोशा
जो बिखरीं यार की ज़ुल्फ़ें बना पल्लू ख़ुतन मेरा