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ग़ज़ल
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
कहें हैं सब्र किस को आह नंग ओ नाम है क्या शय
ग़रज़ रो पीट कर उन सब को हम यक बार बैठे हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
गोश ज़द चट-पट ही मरना इश्क़ में अपने हुआ
किस को इस बीमारी-ए-जाँ-काह से फ़ुर्सत हुई
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
पीत में ऐसे लाख जतन हैं लेकिन इक दिन सब नाकाम
आप जहाँ में रुस्वा होगे वाज़ हमें फ़रमाते हो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
छीना था दिल को चश्म ने लेकिन मैं क्या करूँ
ऊपर ही ऊपर उस सफ़-ए-मिज़्गाँ में पट गया
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
हम से भी पीत की बात करो कुछ हम से भी लोगो प्यार करो
तुम तो परेशाँ हो भी सकोगे हम को यहाँ पे दवाम कहाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
देखो तो पेट बन गया आख़िर ग़ुबारा गैस का
खाते हो इतना गोश्त क्यों पीते हो इतनी चाय क्यों
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
मैं न कहता था कि उजलत इस क़दर अच्छी नहीं
एक पट खिड़की का आ कर देख लो वा रह गया