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ग़ज़ल
हर्फ़ पर्दा-पोश थे इज़हार-ए-दिल के बाब में
हर्फ़ जितने शहर में थे हर्फ़-ए-ला होते गए
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
वो बरहनगी का क़सीदा कहते हुए इधर निकल आया था
मगर उस की आँखों में सत्र-पोश हया न हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
प्यार-भरी उम्मीदों पर अग़्यार की वो ज़र-पोश निगाहें
काँटों के पैवंद लगा कर तू ने फूल बिखेरे दिल में