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ग़ज़ल
जो ख़ानदानी रईस हैं वो मिज़ाज रखते हैं नर्म अपना
तुम्हारा लहजा बता रहा है तुम्हारी दौलत नई नई है
शबीना अदीब
ग़ज़ल
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
आँखें जिन को देख न पाएँ सपनों में बिखरा देना
जितने भी हैं रूप तुम्हारे जीते-जी दिखला देना
रईस फ़रोग़
ग़ज़ल
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
हो गए रुख़्सत 'रईस' ओ 'आली' ओ 'वासिफ़' 'निसार'
रफ़्ता रफ़्ता आगरा 'सीमाब' सूना हो गया