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ग़ज़ल
ग़ौर से देखते हैं तौफ़ को आहु-ए-हरम
क्या कहें उस के सग-ए-कूचा के क़ुर्बां होंगे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
मोहज़्ज़ब दोस्त आख़िर हम से बरहम क्यूँ नहीं होंगे
सग-ए-इज़हार को हम भी तो खुल्ला छोड़ देते हैं
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
दार ने इक सग-ए-दुनिया को ये बख़्शा है उरूज
है फ़रिश्तों में भी चर्चा मिरी दीं-दारी का
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
फ़िक्र-ए-उक़्बा न करूँ तुझ में गिरफ़्तार रहूँ
शायरी तेरे लिए मैं सग-ए-दुनिया हो जाऊँ