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ग़ज़ल
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
प्यारों से मिल जाएँ प्यारे अनहोनी कब होनी होगी
काँटे फूल बनेंगे कैसे कब सुख सेज बिछौना होगा
मीराजी
ग़ज़ल
कू-ए-जानाँ में भी ख़ासा था तरह-दार 'फ़राज़'
लेकिन उस शख़्स की सज-धज थी सर-ए-दार जुदा
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अब तो उस सूने माथे पर कोरे-पन की चादर है
अम्मा जी की सारी सज-धज सब ज़ेवर थे बाबू जी
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
फिर तिरी चश्म-ए-सुख़न-संज ने छेड़ी कोई बात
वही जादू है वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
देखो ये शहर है अजब दिल भी नहीं है कम ग़ज़ब
शाम को घर जो आऊँ मैं थोड़ा सा सज लिया करो
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
मिरी छत से रात की सेज तक कोई आँसुओं की लकीर है
ज़रा बढ़ के चाँद से पूछना वो उसी तरफ़ से गया न हो
बशीर बद्र
ग़ज़ल
वक़्त की पाबंद हैं आती जाती रौनक़ें
वक़्त है फूलों की सेज वक़्त है काँटों का ताज