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ग़ज़ल
दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन
न तिरी हिकायत-ए-सोज़ में न मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
नाम पे हम क़ुर्बान थे उस के लेकिन फिर ये तौर हुआ
उस को देख के रुक जाना भी सब से बड़ी क़ुर्बानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मिरे मौसमों के भी तौर थे मिरे बर्ग-ओ-बार ही और थे
मगर अब रविश है अलग कोई मगर अब हवा कोई और है
नसीर तुराबी
ग़ज़ल
ग़ौर से देखते हैं तौफ़ को आहु-ए-हरम
क्या कहें उस के सग-ए-कूचा के क़ुर्बां होंगे