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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
कहीं है अब्द की धुन और कहीं शोर-ए-अनल-हक़ है
कहीं इख़्फ़ा-ए-मस्ती है कहीं इज़हार-ए-मस्ती है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
न तो काम रखिए शिकार से न तो दिल लगाइए सैर से
बस अब आगे हज़रत-ए-इश्क़-जी चले जाइए घर ही को ख़ैर से
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
बंदा-ए-ख़्वाहिशात को कहता है कौन अब्द-ए-हुर
चाहिए हुर्रियत अगर दिल को 'अमीं' ग़ुलाम कर