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ग़ज़ल
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
बाग़बाँ गुलचीं को चाहे जो कहे हम को तो फूल
शाख़ से बढ़ कर कफ़-ए-दिलदार पर अच्छा लगा
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मा'नी-ए-दिल का करे इज़हार 'अकबर' किस तरह
लफ़्ज़ मौज़ूँ बहर-ए-कश्फ़-ए-मुद्दआ मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
'बर्क़' उफ़्तादा वो हूँ सल्तनत-ए-आलम में
ताज-ए-सर इज्ज़ से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
दस्त-ए-सय्याद भी आजिज़ है कफ़-ए-गुल-चीं भी
बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की ज़बाँ ठहरी है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुझ जिस्म की मिट्टी पे तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा
और मैं भी बड़ा ख़ुश कि अरे क्या हुआ तू है