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ग़ज़ल
इश्क़ के मैदाँ-दारों में भी मरने का है वस्फ़ बहुत
या'नी मुसीबत ऐसी उठाना कार-ए-कार-गुज़ाराँ है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
दर्द का कहना चीख़ ही उट्ठो दिल का कहना वज़्अ निभाओ
सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इज़्ज़त-दारों का
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
फ़ुटपाथ पे भी सोने न दिया तिरे शहर के इज़्ज़त-दारों ने
हम कितनी दूर से आए थे इक रात बसर करने के लिए
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
नज़दीकी अक्सर दूरी का कारन भी बन जाती है
सोच-समझ कर घुलना-मिलना अपने रिश्ते-दारों में
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
कुछ ऐसे फ़र्ज़ भी ज़िम्मे हैं ज़िम्मे-दारों पर
जिन्हें हमारे दिलों को दुखा के चलना है
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
होंटों पर आहें क्यूँ होतीं आँखें निस-दिन क्यूँ रोतीं
कोई अगर अपना भी होता ऊँचे ओहदे-दारों में