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ग़ज़ल
दबा रक्खा है इस को ज़ख़्मा-वर की तेज़-दस्ती ने
बहुत नीचे सुरों में है अभी यूरोप का वावैला
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी
जो बढ़ कर ख़ुद उठा ले हाथ में मीना उसी का है
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
क़ाबिल-ए-रश्क से वो दुख़्तर-ए-मुफ़्लिस जिस ने
तंग-दस्ती में भी इज़्ज़त को बचा रक्खा है
अब्बास दाना
ग़ज़ल
न सी चश्म-ए-तमा ख़्वान-ए-फ़लक पर ख़ाम-दसती से
कि जाम-ए-ख़ून दे है हर सहर ये अपने मेहमाँ को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मैं वो गुलशन-गज़ीदा हूँ कि तन्हाई के मौसम में
नहीं होते अगर काँटे तो डसती है कली मुझ को
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
जिस दम सिकंदर मर गया हाल-ए-तही-दस्ती खुला
थे हाथ बैरून-ए-कफ़न एक इस तरफ़ एक उस तरफ़
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
देखो तो किस अदा से रुख़ पर हैं डाली ज़ुल्फ़ें
जूँ मार डसती हैं दिल दिलबर की काली ज़ुल्फ़ें