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ग़ज़ल
निकलवाया मुझे महफ़िल से धक्के दे के ज़ालिम ने
नज़र आया है बरसों बाद ये आली मक़ाम अपना
हमीद दिलकश खंड्वी
ग़ज़ल
तुम्हारी ज़ीस्त में 'शाकिर' कमी रहेगी सदा
कभी बिदेस के धक्के कभी निहाल के दुख
मोहम्मद उस्मान शाकिर
ग़ज़ल
जलें जब घर तो या-रब तुझ से इतनी इल्तिजा है
दुपट्टों से ढके चेहरों को तू महफ़ूज़ रखना
रफ़ीआ शबनम आबिदी
ग़ज़ल
ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र
कभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
बचा कर लाए इस तन्हाई को हम भीड़ से 'मुसहफ़'
फिर इक रिक्शे में बैठे और बड़े धक्के लगे हम को