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ग़ज़ल
वो मर्द-ए-क़लंदर है निशाँ उस का ख़ुदी है
ख़ुद्दार है ऐसा कि गुमाँ उस का ख़ुदी है
फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
ग़ज़ल
मो'जिज़ा क्या कोई अब दस्त-ए-क़लंदर में नहीं
या यही है कि शिफ़ा मेरे मुक़द्दर में नहीं
नज़ीर आज़ाद
ग़ज़ल
ज़ंग हो कर क़ैस का दिल कारवाँ-दर-कारवाँ
नित ये कहता है कि वो लैला का महमिल क्या हुआ
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
ऐ क़लंदर आ तसव्वुफ़ में सँवर कर रक़्स कर
इश्क़ के सब ख़ारज़ारों से गुज़र कर रक़्स कर