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ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में
मैं ने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
तल्ख़ियाँ बढ़ गईं जब ज़ीस्त के पैमाने में
घोल कर दर्द के मारों ने पिया ईद का चाँद
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
फ़स्ल-ए-गुल होती थी क्या जश्न-ए-जुनूँ होता था
आज कुछ भी नहीं होता है गुलिस्तानों में
मख़दूम मुहिउद्दीन
ग़ज़ल
इतना गहरा रंग कहाँ था रात के मैले आँचल का
ये किस ने रो रो के गगन में अपना काजल घोल दिया