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ग़ज़ल
मुहीत दौर-ए-साग़र चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम है साक़ी
ग़ुलाम-ए-चश्म-ए-मैगूँ गर्दिश-ए-अय्याम है साक़ी
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
हुई काशिफ़-ए-हक़ीक़त ये ज़मीर-ए-मय-कदा की
मिरी बे-ख़ुदी जो दुर्द-ए-तह-ए-जाम बन के आई
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
मिरे शहर-ए-जान-ओ-दिल में वो ज़िया बिखेरते हैं
मिरा क़ल्ब है मुजल्ला यहाँ तीरगी नहीं है
ग़ुबार किरतपुरी
ग़ज़ल
ठहर जा हाँ ठहर जा जाने वाले इस को सुनता जा
ब-हाल-नज़्अ' तेरा नीम-जाँ कुछ और कहता है
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
हम बगूले की तरह दश्त में फिरते हैं 'ग़ुबार'
जोश-ए-वहशत ने कुछ ऐसा हमें आज़ाद किया
ग़ुबार किरतपुरी
ग़ज़ल
किसी के नक़्श-ए-पा पर रख दिया है जब से सर अपना
न दिल अपना न जाँ अपनी न घर अपना न दर अपना
ग़ुबार किरतपुरी
ग़ज़ल
सर-बुलंदी हमें मिल सकती है लेकिन ऐ 'ग़ुबार'
आज मिल्लत के जवानों में तग-ओ-ताज़ नहीं
ग़ुबार किरतपुरी
ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना