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ग़ज़ल
ख़याल-ए-यार क्यूँ-कर आ गया तूफ़ान-ए-गिर्या में
ख़ुदा मालूम किस शय का बनाया पुल समुंदर में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
ख़ब्त-ए-अज़्मत में गिरफ़्तार नहीं भी होते
लोग कुछ बाइस-ए-आज़ार नहीं भी होते
सय्यद ज़ियाउद्दीन नईम
ग़ज़ल
हम से उस का रब्त-ए-जुनूँ था एक हँसी की बात सी थी
हम को आख़िर क्यूँ ये ख़ब्त-ए-सई-ए-ना-मशकूर रहा
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
सब तिरे सिवा काफ़िर आख़िर इस का मतलब क्या
सर फिरा दे इंसाँ का ऐसा ख़ब्त-ए-मज़हब क्या
यगाना चंगेज़ी
ग़ज़ल
ख़ुदा को भूल कर तुम किस लिए मग़रूर बैठे हो
तुम्हारे सर से क्यों ये ख़ब्त-ए-सुल्तानी नहीं जाती