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ग़ज़ल
लगता है इन दिनों के है महशर-ब-कफ़ हवा
हैं सर-ब-कफ़ चराग़ तो ख़ंजर-ब-कफ़ हुआ
वक़ार हिल्म सय्यद नगलवी
ग़ज़ल
आइंदा मर्हबों से उलझना नहीं कभी
ख़ैबर से क्या सबक़ यही हासिल किया गया