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ग़ज़ल
ग़िज़ा इसी में मिरी मैं इसी ज़मीं की ग़िज़ा
सदा फिर आती है क्यूँ पर्दा-ए-ख़ला से मुझे
अदीम हाशमी
ग़ज़ल
ये भी होगा वो मुझे दिल से भुला देगा मगर
यूँ भी होगा ख़ुद उसी में इक ख़ला रह जाएगा
इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
रुख़ हवा का कोई जब पूछता उस से 'बानी'
मुट्ठी-भर ख़ाक ख़ला में वो उड़ा देता था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
या ख़ला पर हुक्मराँ या ख़ाक के अंदर निहाँ
ज़िंदगी डट कर अनासिर के मुक़ाबिल आ गई