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ग़ज़ल
ग़ैर से नफ़रत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
जितने हम थे हम ने ख़ुद को उस से आधा कर लिया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
मुझ से तो दिल भी मोहब्बत में नहीं ख़र्च हुआ
तुम तो कहते थे कि इस काम में घर लगता है
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
कभी बड़ा सा हाथ-ख़र्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
ख़र्च सारा हो चुका हूँ और दुनिया में कहीं
कुछ अगर हूँ भी तो ख़ुद से बे-ख़बर बाक़ी हूँ मैं