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ग़ज़ल
ये मेरा शीशा-ए-दिल है ख़ज़फ़-रेज़ा नहीं हमदम
शिकस्ता जिस क़दर होता है क़ीमत बढ़ती जाती है
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
नज़रों में जौहरी के ख़ज़फ़-रेज़े बन गए
ला'ल-ए-जिगर तिरे लब-ओ-दंदाँ के सामने
मुंशी शिव परशाद वहबी
ग़ज़ल
मेरी मिट्टी में तमाज़त के ख़ज़ाने क्या थे
बुझती आँखों में कभी ख़्वाब सुहाने क्या थे