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ग़ज़ल
ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ठहर जाए दर ओ दीवार पर जब तीसरा मौसम
नहीं कुछ फ़र्क़ पड़ता फिर ख़िज़ाओं से बहारों से
यासमीन हमीद
ग़ज़ल
अब लाख ख़िज़ाओं का मौसम भी कुछ न गुलों का कर पाए
हम ख़ून-ए-जिगर से गुलशन का हर रंग निखारा करते हैं
हिदायतुल्लाह ख़ान शम्सी
ग़ज़ल
पतझड़ में ख़िज़ाओं में तुझे ढूँड रही हूँ
मैं ज़र्द फ़ज़ाओं में तुझे ढूँड रही हूँ