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ग़ज़ल
जो ख़ुद-परस्त हैं इंसाँ मफ़ाद के पैकर
उन्हीं के मक्र फ़रेबों में ढल रहे हैं लोग
कैलाश गुरू स्वमी
ग़ज़ल
उधर वो ख़ुद-परस्त अय्यार है मग़रूर है ख़ुद-बींं
इधर मेरा दिल अज़-ख़ुद-रफ़्ता है शैदाई ग़ाफ़िल है