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ग़ज़ल
मेज़ पर नन्हा सा इक काग़ज़ का टुकड़ा छोड़ कर
ज़िंदगी की हर ख़ुशी वो ना-गहानी ले गया
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
तुम्हारे संग-ए-दर का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़ ऐसा किया मर कर उसे छाती पे धर रक्खा