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ग़ज़ल
मय-परस्ती कोई बिदअ'त नहीं हम तो ऐ शैख़
सुन्नत-ए-'हाफ़िज़'-ओ-ख़य्याम' अदा करते हैं
रशीद शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
मैं ब-सद-ब-सद-फ़ख़्रिया ज़ुहहाद से कहता हूँ 'मजाज़'
मुझ को हासिल, शर्फ़-ए-बैअत-ए-ख़य्याम अभी
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
हम में कल के न सही 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम' 'ज़फ़र'
आज के 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम' अभी बाक़ी हैं
सिराजुद्दीन ज़फ़र
ग़ज़ल
हम में कल के न सही 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम' 'ज़फ़र'
आज के 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम' अभी बाक़ी हैं
सिराजुद्दीन ज़फ़र
ग़ज़ल
है उस की शाइ'री में फ़िक्र का फ़ुक़्दान ऐ 'अशरफ़'
मगर वो चाहता है शाइ'र-ए-ख़य्याम हो जाए
अशरफ़ याक़ूबी
ग़ज़ल
कलाम जिस का है मेराज 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम'
यही वो 'अख़्तर'-ए-ख़ाना-ख़राब है साक़ी
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
ज़माना बरसर-ए-पैकार है पुर-हौल शो'लों से
तिरे लब पर अभी तक नग़्मा-ए-ख़य्याम है साक़ी
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
इंसाँ की है औलाद अगर वो 'मुल्ला' हो या और कोई
हंगाम-ए-जवानी फ़लसफ़ा-ए-'ख़य्याम' से बचना मुश्किल है