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ग़ज़ल
अपनी पलकों से झटकते हुए कुछ ख़्वाबों को
ले के अंगड़ाइयाँ बेदार हुई है दुनिया
मोहसिन आफ़ताब केलापुरी
ग़ज़ल
सोहबत-ए-वाइज़ में भी अंगड़ाइयाँ आने लगीं
राज़ अपनी मय-कशी का क्या कहें क्यूँकर खुला
यगाना चंगेज़ी
ग़ज़ल
ज़िंदगी रक़्साँ हो 'महशर' झूम उठ्ठे काएनात
ख़्वाब से उट्ठा हूँ मैं अंगड़ाइयाँ लेता हुआ
महशर इनायती
ग़ज़ल
रात-दिन अंगड़ाइयाँ वो लें मिरी आग़ोश में
जिन हसीनों के लिए पैदा ये अंगड़ाई हुई
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
तिरी यादों से वाबस्ता मिरा कमरा मिरा बिस्तर
वही यादें उभरती हैं मिरी अंगड़ाइयाँ बन कर
अब्दुल मन्नान समदी
ग़ज़ल
मिरा हर इज़्तिराब-ए-दिल निशाँ मंज़िल का बन जाए
तमन्नाओं में मेरी हुस्न की अंगड़ाइयाँ रख दो
फ़राज़ सुल्तानपूरी
ग़ज़ल
यहाँ तक तो निभाया मैं ने तर्क-ए-मय-परस्ती को
कि पीने को उठा ली और लीं अंगड़ाइयाँ रख दी
साइल देहलवी
ग़ज़ल
पिला साक़ी कि रह जाए ख़ुमार-ए-कैफ़ का पर्दा
बस अब रुकतीं नहीं आती हुई अंगड़ाइयाँ मुझ से
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
मय उभर कर जाम में अंगड़ाइयाँ लेने लगी
कैसा मद्द-ओ-जज़्र साक़ी तेरे मयख़ाने में है