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ग़ज़ल
शब-ए-फ़ुर्क़त में आँखों से मिरी अश्क-ए-अलम निकले
अंधेरा भी ज़ियादा था सितारे भी न कम निकले
बरतर मदरासी
ग़ज़ल
न किसी अक़ीक़ की जुस्तुजू न किसी गुहर की तलाश है
जो किसी का दर्द बटा सके मुझे उस बशर की तलाश है
बरतर मदरासी
ग़ज़ल
तक़दीर बदलनी ना-मुम्किन बंदे से ख़ुदाई क्या होगी
जैसी है गुज़रनी गुज़रेगी दुश्मन से बुराई क्या होगी
बरतर मदरासी
ग़ज़ल
बरतर मदरासी
ग़ज़ल
अब्र-ए-नैसाँ की न बरकत है न फ़ैज़ान-ए-बहार
क़तरे गुम हो गए ता'मीर-ए-गुहर से पहले