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ग़ज़ल
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
मानिंद-ए-ख़िज़्र जग में अकेला जिया तो क्या
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
है कुदूरतों के हिसार में ये मोहब्बतों का हसीं नगर
ये दयार-ए-आब-ए-हयात है इसे सम-कदा न बनाइए
सबीहा सुंबुल
ग़ज़ल
ख़िज़्र अब दूर कर आगे से मिरे आब-ए-हयात
किस के बोसे का तलबगार हूँ अल्लाह अल्लाह
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
सुन ले तुम्हारे गर लब-ए-जाँ-बख़्श का मज़ा
मर जाए ख़िज़्र डूब के आब-ए-हयात में