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ग़ज़ल
बदलते मौसमों में आब-ओ-दाना भी नहीं होगा
कि पेड़ों पर परिंदों का ठिकाना भी नहीं होगा
अब्दुल मन्नान समदी
ग़ज़ल
ख़ुद अपनी काविशों से आब-ओ-दाना ढूँड लेते हैं
परिंदे अपने रहने का ठिकाना ढूँड लेते हैं
क़ैसर अज़ीज़
ग़ज़ल
आब-ओ-दाना तिरा ऐ बुलबुल-ए-ज़ार उठता है
फ़स्ल-ए-गुल जाती है सामान-ए-बहार उठता है
मुबारक अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
अब्बास दाना
ग़ज़ल
तअ'ज्जुब कुछ नहीं 'दाना' जो बाज़ार-ए-सियासत में
क़लम बिक जाएँ तो सच बात लिखना छोड़ देते हैं