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ग़ज़ल
हम कि दुख ओढ़ के ख़ल्वत में पड़े रहते हैं
हम ने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
कहीं कहीं से कुछ मिसरे एक-आध ग़ज़ल कुछ शेर
इस पूँजी पर कितना शोर मचा सकता था मैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
दिल में फिर गिर्ये ने इक शोर उठाया 'ग़ालिब'
आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गाहे गाहे अब भी चले जाते हैं हम उस कूचे में
ज़ेहन बुज़ुर्गी ओढ़ चुका दिल की नादानी बाक़ी है