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ग़ज़ल
यही है ज़िंदगी तो ज़िंदगी से ख़ुद-कुशी अच्छी
कि इंसाँ आलम-ए-इंसानियत पर बार हो जाए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
'अलम’ रब्त-ए-दिल-ओ-पैकाँ अब इस आलम को पहुँचा है
कि हम पैकाँ को दिल दिल को कभी पैकाँ समझते हैं
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
बड़े चर्चे हैं 'आलम' आप की ख़ाना-ख़राबी के
ख़ुदा का शुक्र है मक़्ते में आ कर बैठ जाते हैं
मुकेश आलम
ग़ज़ल
जहाँ तक हो सके 'आलम किसी से क़र्ज़ मत लेना
मियाँ ये क़र्ज़-दारी ख़ैर-ओ-बरकत छीन लेती है