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ग़ज़ल
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ख़ैर उम्मत हैं मोहब्बत हैं वफ़ा प्यार हैं हम
अम्न-ए-आलम के ज़माने में अलम-दार हैं हम
काैकब ज़की
ग़ज़ल
जिस ने पैहम कोशिशें कीं अम्न-ए-आलम के लिए
वो ख़ुद अपने ही चमन को सुर्ख़-रू करता रहा
नाज़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
ये भी अस्लाफ़ की तहज़ीब है 'अज़हर' मैं यहाँ
अपना किरदार तमाम अम्न-ए-अमाँ तक देखूँ
अज़हर हाश्मी सबक़त
ग़ज़ल
दिया करता है इंसाँ अपने दिल को भी फ़रेब ऐसा
ख़बर सब कुछ है और बैठे हुए हो बे-ख़बर हो कर
नज्म आफ़न्दी
ग़ज़ल
दुनिया में जी से जाएगा कौन अम्न-ए-‘आलम की ख़ातिर
ये वक़्त बताएगा बैठे किस करवट दुनिया क्या कहिये