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ग़ज़ल
वो बुत-ए-शीरीं-अदा करता है मुझ को संगसार
ये शकर-पारे बरसते हैं जुनूँ पत्थर नहीं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
आँखों को इंतिशार है दिल बे-क़रार है
ऐ आने वाले आक़ा तिरा इंतिज़ार है