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ग़ज़ल
ख़मोशी में निहाँ ख़ूँ-गश्ता लाखों आरज़ूएँ हैं
चराग़-ए-मुर्दा हूँ मैं बे-ज़बाँ गोर-ए-ग़रीबाँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मज़े वो पाए हैं आरज़ू में कि दिल की ये आरज़ू है यारब
तमाम दुनिया की आरज़ूएँ मिरे लिए इंतिख़ाब कर दे
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
न वो 'उम्र है न मसर्रतें न वो 'ऐश है न वो इशरतें
न वो आरज़ूएँ न हसरतें न ख़ुशी का नाम-ओ-निशाँ रहा
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
ये रेज़ा रेज़ा सी आरज़ूएँ कभी तो कर दे मिरे हवाले
मैं अपने बिखरे बदन की मानिंद देखता हूँ मलूल तुझ को
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
गुलशन-ए-दिल में कहाँ 'अख़्तर' वो रंग-ए-नौ-बहार
आरज़ूएँ चंद कलियाँ थीं परेशाँ हो गईं
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
सितम की ख़्वाहिशें 'बेख़ुद' ग़ज़ब की आरज़ुएँ हैं
जवानी के ये दिन शायद मुसीबत बन के आते हैं
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
अब आरज़ूएँ बर आईं कि ख़ाक में मिल जाएँ
ख़ुदा ने दिन ये दिखाया उन्हें जवाँ देखा