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ग़ज़ल
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
गुलहा-ए-अश्क-ए-ख़ूँ से है दामन भरा हुआ
किस ने कहा कि ख़ुल्द-ब-दामाँ नहीं हैं हम
अब्र अहसनी गनौरी
ग़ज़ल
वहाँ पहुँचा दिया है इश्क़ ने अब मरहला दिल का
जहाँ सब फ़र्क़ मिट जाता है बिस्मिल और क़ातिल का
अब्र अहसनी गनौरी
ग़ज़ल
'अब्र' मैं क्या कह सकूँगा उन से हाल-ए-दर्द-ए-दिल
जो ज़बाँ से लफ़्ज़ निकलेगा फ़ुग़ाँ हो जाएगा
अब्र अहसनी गनौरी
ग़ज़ल
वही अज़़कार-ए-हवादिस वही ग़म के क़िस्से
'अब्र' क्या इस के सिवा है तिरे अफ़्सानों में
अब्र अहसनी गनौरी
ग़ज़ल
दुनिया हो 'अब्र' या वो अदम हो कि बज़्म-ए-हश्र
उन की ही जुस्तुजू में रहे हम जहाँ रहे