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ग़ज़ल
कटे हुए खेतों की मुंडेरों पर अब्रक की ज़ंगारी
थकी हुई मिट्टी के सहारे ढेर लगा है हीरों का
ज़ेब ग़ौरी
ग़ज़ल
अब्रक़-ए-सोख़्ता सा क्यूँ न नज़र आए जो हो
आतिश-ए-हुस्न तिरी साइक़ा-ज़न आइने में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
काम हुए हैं सारे ज़ाएअ' हर साअ'त की समाजत से
इस्तिग़्ना की चौगुनी उन ने जूँ जूँ मैं इबराम किया