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ग़ज़ल
है अपनी किश्त-ए-वीराँ सरसब्ज़ इस यक़ीं से
आएँगे इस तरफ़ भी इक रोज़ अब्र-ओ-बाराँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
रुका रहता है चारों सम्त अश्क ओ आह का मौसम
रवाँ हर लहज़ा कारोबार-ए-अब्र-ओ-बाद रक्खा है
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
ये अब्र-ओ-किश्त की दुनिया में कैसे मुमकिन है
कि उम्र-भर की वफ़ा का कोई सिला ही न हो
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
मेरा और उस का इख़्तिलात हो गया मिस्ल-ए-अब्र-ओ-बर्क़
उस ने मुझे रुला दिया मैं ने उसे हँसा दिया
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
कहाँ तक रोकते आँखों में अब्र-ओ-बाद-ए-हिज्राँ को
अब आए हो कि जब ये शहर ज़ेर-ए-आब आया है
सलीम कौसर
ग़ज़ल
बहुत क़दीम का नाम है कोई अब्र-ओ-हवा के तूफ़ाँ में
नाम जो मैं अब भूल चुका हूँ कैसे उस को याद करूँ