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ग़ज़ल
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
हुनर सीखा है उस शमशीर-ज़न ने बेद-ए-माली का
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
टुकड़े जिगर के बह चले हम-राह-ए-सैल-ए-अश्क
लाता है खींच ख़ार-ओ-ख़स आब-ए-रवाँ की ओर
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
ग़ज़ल
करेंगी क़त्ल दिल कूँ आज तेग़-ए-अबरुवाँ-सेती
निपट ख़ूनीं हैं ज़ालिम हम नीं तेरी अटकली अँखियाँ
अब्दुल वहाब यकरू
ग़ज़ल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
तू कफ़-ए-ख़ाक ओ बे-बसर मैं कफ़-ए-ख़ाक ओ ख़ुद-निगर
किश्त-ए-वजूद के लिए आब-ए-रवाँ है तू कि मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट
जाली की कुर्ती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी ही