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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मेरे ग़म का शायद तुम को इस से कुछ अंदाज़ा हो
मैं ने उस की चूनर को अब धानी कहना छोड़ दिया
नफ़स अम्बालवी
ग़ज़ल
मिरे अज़ीज़ो न दिल जलाओ कि शाम अब तक ढली नहीं है
चराग़ की लौ ज़रा घटाओ कि शाम अब तक ढली नहीं है
अब्दुल्लाह अली एजाज़
ग़ज़ल
गज़क की इस क़दर ऐ मस्त तुझ को क्या शिताबी है
हमारा भी दिल-ए-सद-लख़्त दूकान-ए-कबाबी है