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ग़ज़ल
पीर-ए-गर्दूं से ज़रा अंजुम उचक कर छीन लें
हिम्मतें आली हैं फ़िक्र-ए-चर्ख़-ए-बालाई नहीं
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
वो कैसा जोश था बच्चों में भी शहादत का
उचक रहे थे जो पंजों के बल क़तारों में
अब्दुस्समद ख़ाँ क़ैसर
ग़ज़ल
जों गली में मुझे आते हुए देखा तो वो शोख़
अपनी चौखट से उचक झट से गया पट से लिपट
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
रोटी उचक ली मैं ने ब-उन्वान-ए-मुफ़्लिसी
ग़ुर्बत ने मेरी मुझ को बद-आमाल कर दिया