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ग़ज़ल
वो ख़ुद को रेशमी कपड़ों से अहल-ए-ज़र समझते हैं
सराबों की चमक को झील का मंज़र समझते हैं
मुहिबुर्रहमान वफ़ा
ग़ज़ल
मिरे ख़ूँ से जलाता है चराग़-ए-शहर-ए-अहल-ए-ज़र
मिरे ही घर के आँगन में सहर आने नहीं देता
इमरान-उल-हक़ चौहान
ग़ज़ल
मैं अहल-ए-ज़र के मुक़ाबिल में था फ़क़त शाएर
मगर मैं जीत गया लफ़्ज़ हारता था मैं
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
खड़े हैं लोग अहल-ए-ज़र के आगे सर झुकाए क्यों
'अज़ीम' अपने ख़ुदा का ही सहारा जगमगाता है
इमरान अज़ीम
ग़ज़ल
बह्र-ए-इरफ़ाँ से तो ख़ुश-फ़िक्र शनावर उभरे
अहल-ए-ज़र डूब गए और क़लंदर उभरे