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ग़ज़ल
बंद-ए-क़बा को ख़ूबाँ जिस वक़्त वा करेंगे
ख़म्याज़ा-कश जो होंगे मिलने के क्या करेंगे
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
क्यूँ तू ने वा किया था बंद-ए-क़बा चमन में
उड़ती फिरे है गुल से बुलबुल ख़फ़ा चमन में
सग़ीर अली मुरव्वत
ग़ज़ल
निकली है जब कभी तिरे बंद-ए-क़बा की बात
दामन को चाक करने लगे हैं जुनूँ के हात
सय्यद फ़ज़लुल मतीन
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
खुलेगा ख़ुद वो किसी रोज़ मिस्ल-ए-बंद-ए-क़बा
न छुप सकेगा लहू में रचाव जैसा है
ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी
ग़ज़ल
तन फ़र्त-ए-लताफ़त से हो जब रूह-ए-मुजस्सम
क्या ज़ोर चले कश्मकश-ए-बंद-ए-क़बा का