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ग़ज़ल
मयस्सर आ चुकी है सर-बुलंदी मुड़ के क्यूँ देखें
इमामत मिल गई हम को तो उम्मत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जगत सबहहा अमत बरहमुख अटक कहसवा ममन करन खा
दिवानी केनी तुमन सुरीजन न सुध की गर पर न बुध की झाला
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
दिल में जो तसव्वुर है तिरी ज़ुल्फ़-ए-रसा का
समझा हूँ इसे मैं तो अमल रद्द-ए-बला का
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
बड़ी मुद्दत से क़िस्मत आज़माने की तमन्ना है
तुझे पाने तुझे अपना बनाने की तमन्ना है